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त्वे॒षमि॒त्था स॒मर॑णं॒ शिमी॑वतो॒रिन्द्रा॑विष्णू सुत॒पा वा॑मुरुष्यति। या मर्त्या॑य प्रतिधी॒यमा॑न॒मित्कृ॒शानो॒रस्तु॑रस॒नामु॑रु॒ष्यथ॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tveṣam itthā samaraṇaṁ śimīvator indrāviṣṇū sutapā vām uruṣyati | yā martyāya pratidhīyamānam it kṛśānor astur asanām uruṣyathaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वे॒षम्। इ॒त्था। स॒म्ऽअर॑णम्। शिमी॑ऽवतोः। इन्द्रा॑विष्णू॒ इति॑। सु॒त॒ऽपाः। वा॒म्। उ॒रु॒ष्य॒ति॒। या। मर्त्या॑य। प्र॒ति॒ऽधी॒यमा॑नम्। इत्। कृ॒शानोः॑। अस्तुः॑। अ॒स॒नाम्। उ॒रु॒ष्यथः॑ ॥ १.१५५.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:155» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:25» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (शिमीवतोः) प्रशस्त कर्मयुक्त अध्यापक और उपदेशक की उत्तेजना से (समरणम्) अच्छे प्रकार प्राप्ति करानेवाले (त्वेषम्) प्रकाश को प्राप्त होकर (मर्त्याय) मनुष्य के लिये (प्रतिधीयमानम्) अच्छे प्रकार धारण किये हुए व्यवहार को (उरुष्यति) बढ़ाता है वह (सुतपाः) सुन्दर तपस्यावाला सज्जन पुरुष (या) जो (इन्द्राविष्णू) बिजुली और सूर्य के समान पढ़ाने और उपदेश करनेवाले तुम दोनों (अस्तुः) एक देश से दूसरे देश को पदार्थ पहुँचा देनेवाले (कृशानोः) बिजुली रूप आग की (असनाम्) पहुँचाने की क्रिया को जैसे (इत्) ही (उरुष्यथः) सेवते हो (इत्था) इसी प्रकार से (वाम्) तुम दोनों को सेवें ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो तपस्वी जितेन्द्रिय होते हुए विद्या का अभ्यास करते हैं, वे सूर्य और बिजुली के समान प्रकाशितात्मा होते हैं ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यः शिमीवतोरध्यापकोपेदशकयोः सकाशात् समरणं त्वेषं प्राप्य मर्त्याय प्रतिधीयमानमुरुष्यति स सुतपा या इन्द्राविष्णू इवाध्यापकोपदेशकौ युवामस्तुः कृशानोरसनां यथेदुरुष्यथ इत्था वां सेवताम् ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वेषम्) प्रकाशम् (इत्था) अनेन प्रकारेण (समरणम्) सम्यक् प्रापकम् (शिमीवतोः) प्रशस्तकर्मयुक्तयोः (इन्द्राविष्णू) विद्युत्सूर्याविव (सुतपाः) सुतं पाति रक्षति सः (वाम्) युवाम् (उरुष्यति) वर्द्धयति (या) यौः (मर्त्याय) मनुष्याय (प्रतिधीयमानम्) सम्यक् ध्रियमाणम् (इत्) (कृशानोः) विद्युतः (अस्तुः) प्रक्षेप्तुः (असनाम्) प्रक्षेपणां क्रियाम् (उरुष्यथः) सेवेथाम् ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये तपस्विनो जितेन्द्रियाः सन्तो विद्यामभ्यस्यन्ति ते सूर्यविद्युद्वत्प्रकाशितात्मानो भवन्ति ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे तपस्वी जितेंद्रिय असून विद्याभ्यास करतात ते आत्मे सूर्य व विद्युतप्रमाणे प्रकाशित होतात. ॥ २ ॥